Kis Prakar Ki Ha Yah Bhartiyata ?
पंडित जवाहरलाल नेहरू समेत उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों के सभी विचारक, अलावा गाँधी के, ‘प्रगति’ की अवधारणा के सम्मोह में थे जो उनके अनुसार मनुष्यता को शोषण आदि से मुक्त कर देगी । लेकिन अब हम जानते हैं कि इससे एक दूसरे तरह की प्रभुता कायम हो जाती है जिससे पृथ्वी विनाश की ओर जा सकती है । इसलिए मैं सोचता हूँ कि इक्कीसवीं शती विकास की अवधारणा पर गहरा प्रश्नचिह्न लगाएगी । उन्नीसवीं शती में एक समय था जब कार्ल मार्क्स ने कहा था कि सारी आलोचना धर्म की आलोचना से शुरू होती है । उनका आशय यह था कि धर्म सर्वज्ञ होने का दावा करता है, इस बात का दावा कि उसके पास सभी प्रश्नों का हल है । नए विचार–विमर्श की कोई गुंजाइश ही नहीं थी क्योंकि एक ऐसा दावेदार पहले से ही मौजूद था जो सोचता था कि उसके पास सारे जवाब सहज उपलब्ध हैं । इसलिए चिंतन तभी संभव था जब आप धर्म की आलोचना करें । आज जब हम बीसवीं शताब्दी के अंत की ओर जा रहे हैं, कोई भी नया सृजनात्मक चिंतन तभी संभव है जब आप विकास के विचार को प्रश्नांकित करने का जोखिम उठाएँ । जो विकास के प्रश्न को प्रश्नांकित नहीं कर सकते, वे कुछ भी नया नहीं सोच सकते । इस तरह यहाँ भी शताब्दी का अंत एक नए चिंतन की शुरुआत होगा जहाँ विकास को सुख और मुक्ति के एकमात्र स्रोत की तरह देखे जाने को प्रश्नांकित किया जाएगा ।